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Friday, May 5, 2017

फिल्मों में नियम-निर्देशों को बदलने की जरूरत



1952 में CBFC यानि केन्द्रीय बोर्ड़ फिल्म प्रमाणन की शुरुआत हई थी जिसे फिल्मों को निर्धारित निर्देशों के अनुसार जांचनें का अधिकार है। इस बोर्ड़ के निर्देश भी काफ़ी सख्त है। इसके नियमों के अनुसार किसी फिल्म को प्राय: चार वर्गो में रखा जा सकता है जो यह निर्धारित करते है कि फिल्म कौन से दर्शकों के लिए है या इसे कौन से उम्र के लोग देख सकते है।  कोई भी फिल्म उसके विषय के हिसाब से एक सर्टिफिकेट प्राप्त करती है यह U,U/A,A,S हो सकते है। अलग-अलग वर्ग में मिलने वाले सर्टिफिकेट के मूल्याकंन के मायने उसके अनुसार होते है। यह बोर्ड़ किसी फिल्म को नकारने अर्थात् बैन करने की भी क्षमता रखता है। यह बात तो CBFC बोर्ड़ की शक्तियों की बात हुई है लेकिन हाल में ही कुछ ऐसे मुद्दे देखने को मिले जो यह मानते है कि आने वाले समय में CBFC को अपने दिशा निर्देश बदलने चाहिए ताकि वे फिल्मों के दृश्यों पर लगने बाले कट को बचा सके । कुछ नामी निर्देशको का मानना है कि इस तरह के फिल्मों में कट लगने से प्राय: उनकी रचनात्मकता किसी दृश्य में नष्ट हो जाती है तथा वे  इसे  फिल्मों के व्यवसाय का बहुत बड़ा नुक्सान भी बताते है। लगातार दृश्यों में लगनें वाले कट से कई बार दृश्यों की निरंतरता खत्म हो जाती है ऐसा भी कुछ निर्देशकों का मानना है। प्राय: एक फिल्म शुरु करने से लेकर पूर्ण रुप से बनने तक एक लम्बी प्रक्रिया में चलती है जो यह दर्शाती है कि इसमे लगने वाला खर्च कितना होगा तथा यह एक व्यवसाय भी है जिसमें हिट होने से फायदा भी बहुत ज्यादा है। फिल्में मनोंरज़न का स्त्रोत मानी जाती है अपने निर्धारित समय में यह दर्शकों को आप में बांधने की क्षमता रखती है ताकि लोग उस फिल्म को देखते समय कुछ और न सोचे, सिर्फ उस फिल्म के सन्देश को समझ सके। कोई फिल्म यदि अपना थीम लोगों तक पंहुचाने तक सफल रहती है तो यह हिट भी हो सकती है
किसी फिल्म में से की मह्त्वपूर्ण दृश्य का कट होना इन सभी चीजों नुक्सान होता है। चाहे बात रचनात्मकता की हो या कुछ और लेकिन CBFC द्वारा फिल्म सर्टिफिकेट दे दिया जाता है जो यह बताता है कि फिल्म किस लेवल की है,कौन से दर्शकों  के देखने के योग्य है । यहीं से फिल्म का अच्छा या बुरा तय होता है ।
 हाल में ही रिलीज हुई फिल्म ‘उड़ता पजांब’  को काफी सेंसंर बोर्ड़ की मार झेलनी पड़ी थी और मामला कोर्ट तक पंहुच गया था तथा तब भी सेंसंर बोर्ड़ की काफ़ी आलोचना हुई थी। आखिर क्या सच में ही ऐसा करने से किसी फिल्म के लिए जोखिम हो सकता है या फिर हमारे सेंसंर बोर्ड़ को फिल्में मूल्याकंन करने का नजरिया बदलना चहिए। ताकि किसी भी फिल्म में दृश्यों की रचनात्मकता  को कट होने से बचाया जा सके तथा वो दिखाया जा सके जो वास्तव में सही है।