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Friday, May 5, 2017

शिक्षा व्यवस्था, मापदंड और हकीकत


शिक्षा मानव और समाज के बीच ऐसी कड़ी है, जो समाज के मध्य जागरूकता का प्रसार करती है । अतः मानव जीवन के उत्तरोतर विकास में शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षित समाज सभ्य राष्ट्र का निर्माण करता है, राष्ट्रवाद का नहीं । परन्तु सभ्य समाज का निर्माण तभी सम्भव है, जब शिक्षा की गुणवत्ता उच्च स्तर की हो । शिक्षा की गुणवत्ता के लिए जरुरी है कि केन्द्र एवं राज्य  सरकारें शिक्षा के बजट में वृद्दि करें । लेकिन पिछले कुछ सालों से ही भारत का शिक्षा  बजट कम होता जा रहा है, और ऐसी दशा में वर्ल्ड रैंकिंग में अपना स्थान बनाने के प्रयास किये जा रहे है 

जनगणना के आंकड़ों  के अनुसार भारत की साक्षरता दर में वृद्धि हुई है, जो 2001 की जनगणना के अनुसार 65.38% थी, अब 2011 में बढ़कर 72.99 %  हो गई है । यह 7.61% की वृद्दि यह इंगित करती है कि साक्षरता दर में वृद्दि हुई है । मगर ये आंकडे से गुणवता को नहीं दर्शा पाते । लेकिन ये सब जाने बिना हम ग्लोबल रैंकिंग  की दौड़ में शामिल हो चुके है ।

भारत की उच्च शिक्षा ग्लोवलाइजेशन की होड़ में अपना स्थान प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रही है । अगर शिक्षा बजट में निरन्तर इसी तरह से कमी आती रही तो सम्भवतः यह एक सपना मात्र भी रह सकता है । लेकिन सपने देखने का हक तो सभी को है,  इस पर कोई अंकुश नही लगा सकता । जहां कई बार पंचवर्षीय योजनाओं को लक्ष्य हासिल करना मुश्किल हो जाता है। तो शिक्षा के क्षेत्र में अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहुंच बनाना वो भी तो विविध समस्याओं के बाबजूद नामुकिन सा लगता है।

हालांकि हमारी 12वीं पंचबर्षीय योजना का लक्ष्य भी सार्वभौमिक पहुँच सुनिशिचत करना, प्राथमिक स्तर पर उपस्थिति में सुधार करना और स्कूल छोड़ने की दर को 10 %  से नीचे लाना, शिक्षा के उच्च स्तरों पर नामाकंन बढ़ाना और कुल नामाकन अनुपात (GER) माध्यमिक स्तर पर 90 %  से अधिक तथा वरिष्ठ माध्यमिक स्तर पर 65 %  से अधिक बढ़ाना, समग्र साक्षरता दर में 80% की वृद्धि करना और लिंग अनुपात में 20 %  की कमी करना । इसके साथ बच्चों की अच्छी गुणवत्ता की अनिवार्य और निशुलक शिक्षा का भी जिक्र है । 

विश्विद्यालय आयोग के तहत उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को जाचनें के लिए नैक (NAAC) की 1994 में स्थापना की गई , जिसका मुख्यालय बगंलोर में स्थापित किया गया है । भारत के सभी शिक्षण-संस्थान अगर NAAC के निर्देशों का अनुसरण करें तो शायद ही विश्व की कोई व्यवस्था भारत की शिक्षा व्यवस्था के सामने टिक पाती । मगर नियमों का उलंघन करना भारत में आम बात है, या यूँ मान लिया जाये तो इनकी कठोरता कागजों तक ही सीमित है ।  कुछ ऐसे ही नियम नैक (NAAC ) के भी हैं,  जिसमें कालेजों को हलफनामा देना पड़ता है। जिसके आधार पर ग्रेडिंग और बाद में रैंकिग दी जाती है। जिसके परिणामस्वरुप पर अभी तक शिक्षा की गुणवत्ता एंव आधारिक कमियां दूर हो जानी चाहिए थी । लेकिन अभी उम्मीद ही की जा सकती है, क्योंकि उम्मीद पर दुनिया कायम है । 

जहां एक तरफ NAAC का काम ग्रेडिंग देना है,  वहीं दूसरी तरफ मानव ससाधंन मंत्रालय ने 29 सितम्वर 2015 में रेकिंग के लिए अलग संस्था बनाई, जिसे नाम दिया गया, राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क (NIRF)  हलाकिं अभी ये सभी शिक्षण-संस्थानों के अनिवार्य नहीं है ।  इसके साथ ही इन दोनों मापदंडों  के परिणाम में भी विपरीत सा तालमेल बना हुआ है।

NAAC की सूची में अगर किसी कालेज को A ग्रेड मिला है तो NIRF की रेकिंग में वह 20 वें नम्बर पर है , इसके आलावा अगर किसी कालेज को B ग्रेड मिला है तो वह कालेज नी रेकिंग में पूरे भारत में टॉप10 में जाता है सबसे पहले इन्हीं मापदणड़ों में स्पष्टता का अभाव है तो शिक्षा की गुणवता का हम सोच भी नहीं सकते ।

लगभग तीन दशकों में भारत में शिक्षा व्यवस्था एकदम जरदस्त सकंट से झूझ रही है । सरकारें आई चली गई लेकिन ये सब लगातार जारी है । इस खोखलेपन को लिए नये-नये मापदण्ड़ों को प्रयोग में लाया जा रहा है । बात स्पष्ट है कि, जहां भारत में अधिक सख्या में शिक्षण संस्थान है लेकिन पढ़ाने के लिए अध्यापकों का अभाव है । नियुक्तियां नहीं हो रही है, इसके अलावा विद्यार्थी और अध्यापक अनुपात जहाँ पी. जी. स्तर पर सोशल साइंस में 1:15 , साइंस के लिए 1:10 , कॉमर्स और मैनेजमेंट के लिए 1:15 तथा मीडिया के लिए 1:10 होना चाहिए था !  इसके साथ ही यू. जी. दर्जे में इसके और भी बुरे हाल है, जहाँ सोशल साइंस में 1:30 , साइंस में 1:25 और मीडिया कम्युनिकेशन में 1:10 का अनुपात होना चाहिए था

वहां भीड़ इकठी की जा रही है। इसके साथ ही विश्विद्यालयों के प्रोफेसरों पर प्रकाशन का दबाव अलग से वो कैसे भी करे। इस दवाब के माहौल में प्रकाशनों की वस्तु निष्ठा या निष्पक्षता और का क्या स्तर रहता होगा । बहुत ही सोचनीय विषय है । और यहां परिस्थिति को कैसे सामने लाया जा रहा है कि, सब कुछ सामान्य चल रहा हो ।

शिक्षण - संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता के लिए तत्वों - फंड, फेक्लटी और फ्रीडम का होना बहुत अवश्यक रहता है । इन मौलिक अवयवों की अनुपस्थिति के रहते शिक्षा व्यवस्था को वर्ल्ड-क्लासमें लाने का जिक्र भी नही किया जा सकता है । भले ही भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था, विद्यार्थियों के सम्बंध में यू.एस. और चाइना के पश्चात तीसरी सबसे बड़ी व्यवस्था है । इन  आधारभूत समस्याओं का निदान किए बिना विश्व रेकिंग की भेड़चाल में शामिल होना मूल रुप से शिक्षा व्यवस्था खंडहर होने का प्रमाण है ।

इन कमियो के परिणाम स्पष्ट है । जब बजट की कमी होगी तो संस्थानों को चलाने के लिए फीस वृद्दि भी होगी, जिस का स्तर कुछ भी हो सकता है। जिसका प्रभाव पूर्ण रूप से विद्यार्थियों पर पड़ेगा  इसके अलावा अध्यापकों की कॉन्ट्रैक्ट के आधार नियुक्ति उनके ज़हन को प्रभावित करती हैं  बात साफ़ है कि, जब अध्यापकों को उनकी जरूरत के अनुसार मेहनताना नहीं मिलेगा तो वह अपनी क्षमता के अनुसार काम नहीं करेंगे जिसे अवशय ही शिक्षा गुणवत्ता प्रभावित होगी । इसका हाल ही का उदाहरण ,राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान  (RUSA) है,  जिसमें विद्यार्थियों  के साथ शिक्षकों के जरदस्त विरोध के बाबजुद भी से असित्त्तव में लाया गया । ऐसे में प्रतीत होता है कि व्यवस्था ही शिक्षा की कमर तोड़ रही है।

अगर शिक्षा व्यवस्था में सुधार नही हुए तो अजांम प्रतिकूल ही रहेंगें । जिसके शिक्षा प्रणाली के लिए बनाई गई कमेटियों आवरण को ढ़क नहीं पाएगा । इसका नुक्सान भावी पीढ़ी को होगा। ऐसे में हम भावी पीढ़ी को को बौद्धिक रुप से अक्षम और उनका भविष्य बर्बाद कर रहे है। सके आलाबा भारत में प्रत्येक युवा विदेश से पढ़ सकता नही है।

विश्व में सर्वाधिक युवा भारत में है, मतलब हमारा राष्ट्र युवावस्था पर है।पर इन युवाओं का दुर्भाग्य ही है कि इनकी आत्मा को युवा बनाने वाले तत्व जिनमें सर्वप्रथम जिक्र ही शिक्षा का आता है, जबरदस्त संकट से झूझ रही है । अगर इस बुनियदी आधार की व्यव्स्था में पारदर्शिता नहीं लाई गई तो किस प्रकार हम अपनी भावी पीढ़ी या युवाओं को कैसे फ्यूचर ओरिएंटेड बना पायेंगे । जबकि किसी भी देश के युवाओं को वहां की जागीर या रीढ़ की हड्डी माना जाता है , ऐसी दशा में उन्हें अपंग ही बनाया जा सकता है । 

ये जरूरी है की विकाशशील देशों को विकसित देशों का अनुसरण करना चाहिए , कि आधारभूत समस्याओं का कैसे समाधान किया जाए । अगर कोई देश एकदम से विकसित होना चाहता है , जिसकी सतही समस्याएं अभी हल नई हुई हो , तब तो ये यकीन मानिये असम्भव है । भारत की जमीनी स्तर की समस्याएं अभी हल नहीं हुई है , और आँखें आकाश को छूने में टिकी हैं । इस अवस्था में मुंह के बल तो गिरना तय है । 


फिल्मों में नियम-निर्देशों को बदलने की जरूरत



1952 में CBFC यानि केन्द्रीय बोर्ड़ फिल्म प्रमाणन की शुरुआत हई थी जिसे फिल्मों को निर्धारित निर्देशों के अनुसार जांचनें का अधिकार है। इस बोर्ड़ के निर्देश भी काफ़ी सख्त है। इसके नियमों के अनुसार किसी फिल्म को प्राय: चार वर्गो में रखा जा सकता है जो यह निर्धारित करते है कि फिल्म कौन से दर्शकों के लिए है या इसे कौन से उम्र के लोग देख सकते है।  कोई भी फिल्म उसके विषय के हिसाब से एक सर्टिफिकेट प्राप्त करती है यह U,U/A,A,S हो सकते है। अलग-अलग वर्ग में मिलने वाले सर्टिफिकेट के मूल्याकंन के मायने उसके अनुसार होते है। यह बोर्ड़ किसी फिल्म को नकारने अर्थात् बैन करने की भी क्षमता रखता है। यह बात तो CBFC बोर्ड़ की शक्तियों की बात हुई है लेकिन हाल में ही कुछ ऐसे मुद्दे देखने को मिले जो यह मानते है कि आने वाले समय में CBFC को अपने दिशा निर्देश बदलने चाहिए ताकि वे फिल्मों के दृश्यों पर लगने बाले कट को बचा सके । कुछ नामी निर्देशको का मानना है कि इस तरह के फिल्मों में कट लगने से प्राय: उनकी रचनात्मकता किसी दृश्य में नष्ट हो जाती है तथा वे  इसे  फिल्मों के व्यवसाय का बहुत बड़ा नुक्सान भी बताते है। लगातार दृश्यों में लगनें वाले कट से कई बार दृश्यों की निरंतरता खत्म हो जाती है ऐसा भी कुछ निर्देशकों का मानना है। प्राय: एक फिल्म शुरु करने से लेकर पूर्ण रुप से बनने तक एक लम्बी प्रक्रिया में चलती है जो यह दर्शाती है कि इसमे लगने वाला खर्च कितना होगा तथा यह एक व्यवसाय भी है जिसमें हिट होने से फायदा भी बहुत ज्यादा है। फिल्में मनोंरज़न का स्त्रोत मानी जाती है अपने निर्धारित समय में यह दर्शकों को आप में बांधने की क्षमता रखती है ताकि लोग उस फिल्म को देखते समय कुछ और न सोचे, सिर्फ उस फिल्म के सन्देश को समझ सके। कोई फिल्म यदि अपना थीम लोगों तक पंहुचाने तक सफल रहती है तो यह हिट भी हो सकती है
किसी फिल्म में से की मह्त्वपूर्ण दृश्य का कट होना इन सभी चीजों नुक्सान होता है। चाहे बात रचनात्मकता की हो या कुछ और लेकिन CBFC द्वारा फिल्म सर्टिफिकेट दे दिया जाता है जो यह बताता है कि फिल्म किस लेवल की है,कौन से दर्शकों  के देखने के योग्य है । यहीं से फिल्म का अच्छा या बुरा तय होता है ।
 हाल में ही रिलीज हुई फिल्म ‘उड़ता पजांब’  को काफी सेंसंर बोर्ड़ की मार झेलनी पड़ी थी और मामला कोर्ट तक पंहुच गया था तथा तब भी सेंसंर बोर्ड़ की काफ़ी आलोचना हुई थी। आखिर क्या सच में ही ऐसा करने से किसी फिल्म के लिए जोखिम हो सकता है या फिर हमारे सेंसंर बोर्ड़ को फिल्में मूल्याकंन करने का नजरिया बदलना चहिए। ताकि किसी भी फिल्म में दृश्यों की रचनात्मकता  को कट होने से बचाया जा सके तथा वो दिखाया जा सके जो वास्तव में सही है।